सुनो ग़रीब हूँ.......
,,, *सुनो ग़रीब हूँ...............* ,,,,
किसी की आँख से छलका है प्यार का मोती,
किसी ने नफ़रतों से फ़िर हमें निहारा है..
किसी ने दिल में बसाया,बिठाया पलकों में,
किसी ने गालियाँ देकर हमें पुकारा है..
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,जरा सा दूर ही रहना............
कोई घुमा के मुँह निकल गया है और कहीं,
तो कोई अब तलक़ खड़ा है मुझे देख यहीं,
कभी मिठास में तली अनेक बातें हैं,
तो मेरे हिस्से में कभी तो सिर्फ़ लाते हैं..
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,जरा सा दूर ही रहना...........
किसी ने डाला जो सिक्का,खनक उठी थाली,
कभी तो बीत गया दिन,मग़र रही खाली,
कभी मिली तो कभी मिल नहीं सकी रोटी,
सुनाऊँ किसलिए किसी को मैं ख़री-खोटी,
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना............
पनाह में गगन की है लगा बिस्तर मेरा,
सड़क का कोई किनारा ही रहा घर मेरा,,
क्या बात सूट-बूट की,,नहीं खड़ाऊँ भी,
मिलो कभी तो तुम्हे एड़ियाँ दिखाऊँ भी,
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना.........
ख़ुदा ने हमको बनाया,मग़र न दी खुशियाँ,
यही है हॉल मेरा,,बीत गयीं हैं सदियाँ,
मग़र तुम्हारे लिये जन्नतों का मौसम है,
दुआ है मेरी कटें चैन से तेरी रतियाँ,
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना.........
*कवि सिद्धार्थ अर्जुन*
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
किसी की आँख से छलका है प्यार का मोती,
किसी ने नफ़रतों से फ़िर हमें निहारा है..
किसी ने दिल में बसाया,बिठाया पलकों में,
किसी ने गालियाँ देकर हमें पुकारा है..
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,जरा सा दूर ही रहना............
कोई घुमा के मुँह निकल गया है और कहीं,
तो कोई अब तलक़ खड़ा है मुझे देख यहीं,
कभी मिठास में तली अनेक बातें हैं,
तो मेरे हिस्से में कभी तो सिर्फ़ लाते हैं..
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,जरा सा दूर ही रहना...........
किसी ने डाला जो सिक्का,खनक उठी थाली,
कभी तो बीत गया दिन,मग़र रही खाली,
कभी मिली तो कभी मिल नहीं सकी रोटी,
सुनाऊँ किसलिए किसी को मैं ख़री-खोटी,
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना............
पनाह में गगन की है लगा बिस्तर मेरा,
सड़क का कोई किनारा ही रहा घर मेरा,,
क्या बात सूट-बूट की,,नहीं खड़ाऊँ भी,
मिलो कभी तो तुम्हे एड़ियाँ दिखाऊँ भी,
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना.........
ख़ुदा ने हमको बनाया,मग़र न दी खुशियाँ,
यही है हॉल मेरा,,बीत गयीं हैं सदियाँ,
मग़र तुम्हारे लिये जन्नतों का मौसम है,
दुआ है मेरी कटें चैन से तेरी रतियाँ,
मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना,
सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना.........
*कवि सिद्धार्थ अर्जुन*
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
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