चल गगन के पार......

चल गगन के पार एक दुनिया बसाते हैं
बादलों के बीच में चल जगमगाते हैं......

जिस अँधेरे ने छुपाया है दिवाकर को,
उस अँधेरे की सभी पर्तें मिटाते हैं....

मूढ़ता,जड़ता,विमुखता कर्म पथ से क्यों?
कर्मस्थल,कर्मध्वज से चल,सजाते हैं......

है नया आवेश,रग में रक्त है ऊर्जा भरा
क्रांति की फिर हर तरफ़ धारा बहाते हैं.....

दूर दिखते हैं जो फल,आंनद दायक हैं,
सोंचना क्या है?चलो हम तोड़ लाते हैं......

देखकर दुनिया जिसे अब हार बैठी है,
हर असंभव जीत को हम जीत लाते हैं..

भीरु अपनी भीरुता से बाज़ आ सकते नहीं,
वीर हैं हम वीरता के गीत गाते हैं....

है समय बदलाव का बदलो नज़र अपनी,
आइये फ़िर कुछ नया करके दिखाते हैं..

कौन कहता है,प्रलय में हो नहीं सकता सृजन,
आइये,मिलकर,सृजन करके दिखाते हैं.....

                  कवि सिद्धार्थ अर्जुन
                   9792016971

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