हर एक पहचान अधूरी है...

🍁 *हर एक पहचान अधूरी है* 🍁
🌲🍁
*हे ब्रम्हपुत्र! हरि हर के सुत*
*हे सृष्टि सुमन!हे आदि अंत!*
*तुम क्या हो यह तुम ही जानो*
*पर जो भी हो,तुम हो अनंत*
*अपने विराट अनुपम स्वरूप का*
*कुछ संज्ञान ज़रूरी है,,,,,,,*
*बिन अपना पौरुष पहचाने*
*हर एक पहचान अधूरी है,,,,,,,,,,*
🌲🌲🍁
*इस विश्वपटल के मानस पर*
*अद्वितीय,,अनोखा जीव हो तुम*
*जिस पर भविष्य का महल बने*
*उस कालखण्ड की नींव हो तुम*
*हम सब हैं एक कस्तूरी मृग*
*हम सबकी एक कस्तूरी है,,,,,,,,*
*बिन अपना पौरुष पहचाने*
*हर एक पहचान अधूरी है,,,,,,,,,,,,,*
🌲🌲🌲🍁
*तन मिला,मन मिला,,धन भी मिला*
*बालपन मिला यौवन भी मिला,,*
*दुनिया का बहुत कुछ मिला मग़र*
*तुझको तेरा दर्पण न मिला,,,*
*अपनों से भरी इस दुनिया में*
*अपनी भी खोज ज़रूरी है,,,,*
*बिन अपना पौरुष पहचाने,,*
*हर एक पहचान अधूरी है,,,,,,,,,,,,,*
🌲🌲🌲🌲🍁
*हम हैं अतीत के राजकुँवर*
*इस युग के भी शहज़ादे हैं,,,,*
*इस वर्तमान के आँगन में*
*उज्ज्वल भविष्य के वादे हैं,,,*
*है बागडोर निज हाथ अगर*
*समझो हर इच्छा पूरी है,,,,,,,,*
*बिन अपना पौरुष पहचाने*
*हर एक पहचान अधूरी है,,,,,,,,,,,,,,*
🌲🌲🌲🌲🌲🍁
*इस गली उस गली,,यहाँ वहाँ*
*सदियों सदियों तू ताका है,,,,,,,*
*पर पाया अपने को तब ही*
*जब अपने अंदर झाँका है,,,,*
*है ज्ञान सरोवर के तट पर*
*और ज्ञान से इतनी दूरी है,,,,*
*बिन अपना पौरुष पहचाने*
*हर एक पहचान अधूरी है,,,,,,,,,,,,,,*
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*न आत्मविजय सम विजय कोई*
*इस वृहत विजय को मचल पड़ो,,*
*न आत्मज्ञान सम ज्ञान कोई*
*अब खोज में इसकी निकल पड़ो,,*
*जग को जानो इससे पहले*
*ख़ुद की पहचान ज़रूरी है,,,,*
*बिन अपना पौरुष पहचाने*
*हर एक पहचान अधूरी है,,,,,,,,,,,,,,,,,*
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                  *कवि सिद्धार्थ अर्जुन*
            *बाराबंकी,,9792016971*
         

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