वह दिखता था दुबला पतला...

,,,,, दुबला-पतला ,,,,,

रुख़ बदला तेज हवाओं का
बेटों,बापों का माँओं का....
पग से पग मिलकर चले और,
आकलन हुआ क्षमताओं का..
बह उठी क्रांति की घोर पवन
लाठी ले जननायक निकला..
क्या लिखूं मैं उसके वर्णन में
वह दिखता था दुबला-पतला......

पग एक बढ़ा तो लाख बढ़े,
जो बीज पड़े,बन साख बढ़े
उत्कृष्ट प्रभा,,घनघोर विभा,
बिन रुके निरंतर,,,बाघ बढ़े..
मीठी गर्जन का क्या कहना,
अरि सहित यहाँ अरिदल भी हिला,
क्या लिखूँ मैं उसके वर्णन में,
वह दिखता था दुबला-पतला......

तन चीर फ़क़त एक खादी का,
था अमन सकल आबादी का,
मित्रों के हित उत्थान का स्वर,
शत्रु के हित बर्बादी का...
संयम,सिद्धान्त,अहिंसा की
ज्वाजल्यमान अक्षुण्ण शिला,
क्या लिखूं मैं उसके वर्णन में,
वह दिखता था दुबला-पतला.......

           कवि सिद्धार्थ अर्जुन

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