दौर मिज़ाजी हैं...…..

चलो आज़माते हैं हुनर अपने अपने,
ये दौर मिज़ाजी हैं,रोज थोड़े आते हैं...

यूँ तो डुबकियाँ लगती ही रहती हैं,
पर तलहटी तक,रोज थोड़े जाते हैं.....

चलो देख लें,,मौसम की अंगड़ाई को,
जरूरी है ,ये ज़लज़ले,रोज थोड़े आते हैं..

उड़ने को तो पक्षी भी उड़ा करते हैं,
पर चाँद तक थोड़े जाते हैं..............

वो पकड़ना चाहते हैं हमें यारों,
बोल दो,,,नज़ारे पकड़ में थोड़े आते हैं...

आज खिला हूँ तो देख लो "सिद्धार्थ"
हम जैसे फ़ूल रोज थोड़े आते हैं.........

         कवि सिद्धार्थ अर्जुन

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