जब सब चुप थे तब तू बोला...

,,, *जब सब चुप थे,तब तू बोला* ,,,,

उड़ने वाले सुन एक गुहार,
एक बार और छोड़ो फुहार,
कानों तक गूँजे मधुरिम स्वर,
रवि से पहले आये बहार,
तन्हा विचरण करते मन में,
अपनेपन का क्या रस घोला...
जब सब चुप थे,
तब तू बोला…………………........

झंकृत है ह्र्दयालय का पट,
अब और नहीं लूँगा करवट,
ऊषा की किरण का अभिनन्दन,
करने आऊँगा सरिता तट....
पुलकित हर रोम लगा कहने,
तरुवर से पहले तू डोला...
जब सब चुप थे,
तब तू बोला…........................

है खोज शुरू फिर दाने की,
तैयारी महल बनाने की,
कल पहुँच गये थे जहाँ-जहाँ,
उससे आगे तक जाने की,
सुसुप्तावस्था में दुनिया,
सबसे पहले आँखें खोला,
जब सब चुप थे,
तब तू बोला…....................

विधि की मैं एक उधारी हूँ,
चलता हूँ,,,कारोबारी हूँ,
कलरव सुन जाग उठी अँखियाँ,
ऐ ख़ग! तेरा आभारी हूँ.....
कुछ देर क़लम,, रुक जाना अब,
हाँथों में पकड़ना है झोला,
जब सब चुप थे,
तब तू बोला.....................

                 *कवि सिद्धार्थ अर्जुन*

(प्रातः काल,,पक्षी को ध्वनि सुनने पर उभरे कुछ शब्द..)

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