कई झोंपड़ी उजड़ रही हैं...

,,, *कई झोंपड़ी उजड़ रही हैं* ,,,,

कई झोंपड़ी उजड़ रही हैं,
मेरा मकां बसाने में......
कई ज़िन्दगी बिगड़ रही हैं,
एक ज़िंदगी बनाने में.....

तृप्त उदर है जिनका,
उनको मोल नहीं है रोटी का,
कितने उदर रीढ़ से चिपके,
रोटी एक कमाने में....

थाल में जिनको मिला चंद्रमा,
भला ऊँचाई क्या जाने?
कितनी मटकी,,किसने फोड़ी,,
नदी से पानी लाने में......

बैठ के कन्धों पर हम,
ख़ुद को,ऊँचा कहकर हँसते हैं...
कोई युवा से बृद्ध हो गया,
कन्धों पर टहलाने में......

कोई अपने राग रंग में,
भूल गया है घर आँगन,
भूला माँ के गिरवी गहने,
ख़ुद के ख़्वाब सजाने में...

कहने को सिद्धार्थ आज,
तेरी भी अलग कहानी है,,
कितने आँसू स्याही बन गये,
एक कथा लिखवाने में.......

             कवि सिद्धार्थ अर्जुन

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