मैं कैसे रहूँ गुमनाम.....?
,, *मैं कैसे रहूँ गुमनाम* ,,,
ओ पीर!जरा रुख़सत हो जा,
रुक सकूँ, ये ऐसा वक़्त नहीं..
थक-थक कर ठण्डा हो जाये,
ऐसा तो हमारा रक्त नहीं.......
विश्राम वहीं पर होगा अब,
है जहाँ हमारा ,धाम..
बातों से भरी इस महफ़िल में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
पगचिन्ह! जरा गहरे रहना,
वापसी तलक़ ठहरे रहना,
यह दुनिया, राग अलापेगी,
कुछ मत सुनना, बहरे रहना..
दुनिया अपने मतलब से है,,
ढूंढेगी अपना काम..
बातों से भरी इस महफ़िल में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
मुझको ही धूप में चलने दो,
जग पहले से अकुलाया है..
कम से कम वह तो ख़ुश होंगे,
जिनपर मेरी प्रतिछाया है...
सागर सा स्वाद पसीने में
है यही हमारा ज़ाम..
बातों से भरी इस दुनिया में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
साँसों की गुरियाँ दे देकर,
यश के व्यापारी बढ़े चलो,
अम्बर नीचा हो जायेगा,
एक-एक क़दम तुम चढ़े चलो,
कुछ तेज करो रफ़्तार अभी,
होने वाली है शाम..
बातों से भरी इस दुनिया में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
आ गया समय,पूरी हो माँग,
चढ़ गयी,, आज फिर हमें भाँग,
जब पार ही करना है सागर,
चल बांध लांग, मारो छलाँग,
तुम बोलो अल्लाह-हू-अक़बर
मैं बोलूँ जय श्री राम,
बातों से भरी इस दुनिया में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम...........?
कवि सिद्धार्थ अर्जुन
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
ओ पीर!जरा रुख़सत हो जा,
रुक सकूँ, ये ऐसा वक़्त नहीं..
थक-थक कर ठण्डा हो जाये,
ऐसा तो हमारा रक्त नहीं.......
विश्राम वहीं पर होगा अब,
है जहाँ हमारा ,धाम..
बातों से भरी इस महफ़िल में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
पगचिन्ह! जरा गहरे रहना,
वापसी तलक़ ठहरे रहना,
यह दुनिया, राग अलापेगी,
कुछ मत सुनना, बहरे रहना..
दुनिया अपने मतलब से है,,
ढूंढेगी अपना काम..
बातों से भरी इस महफ़िल में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
मुझको ही धूप में चलने दो,
जग पहले से अकुलाया है..
कम से कम वह तो ख़ुश होंगे,
जिनपर मेरी प्रतिछाया है...
सागर सा स्वाद पसीने में
है यही हमारा ज़ाम..
बातों से भरी इस दुनिया में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
साँसों की गुरियाँ दे देकर,
यश के व्यापारी बढ़े चलो,
अम्बर नीचा हो जायेगा,
एक-एक क़दम तुम चढ़े चलो,
कुछ तेज करो रफ़्तार अभी,
होने वाली है शाम..
बातों से भरी इस दुनिया में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम............?
आ गया समय,पूरी हो माँग,
चढ़ गयी,, आज फिर हमें भाँग,
जब पार ही करना है सागर,
चल बांध लांग, मारो छलाँग,
तुम बोलो अल्लाह-हू-अक़बर
मैं बोलूँ जय श्री राम,
बातों से भरी इस दुनिया में,
मैं कैसे रहूँ गुमनाम...........?
कवि सिद्धार्थ अर्जुन
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
Behtarin kavita...👏👏
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