यूँ कंकड़ मार भगाओ न.....

यूँ कंकड़ मार भगाओ न,,वह अभी-अभी तो आया है,
पक्षी है,,थका, सफ़र से है,,शायद प्यास पथराया है...

दाना-दुनका डालो उसको,पानी की प्याली पहुँचा दो,
कुछ तो सेवा-सत्कार करो,,कुछ सोंच के अंदर आया है.

चीं-चीं चीं करके कहता है,,चीं-चीं को न मज़बूर करो,
कुछ दर्द उसे भी है शायद,,दुनिया ने बहुत सताया है....

ये ताक-झाँक अंदर बाहर,सिद्धार्थ कहीं कुछ गड़बड़ है,
कोई निषाद तो है पीछे,,जिससे इतना घबराया है...

आ बैठ जा मेरी गोदी में,,दुनिया से बचा लूँगा तुझको,
विश्वास करो,"सिद्धार्थ" है ये,,सिंहनी सुता का ज़ाया है..

ऐ पाठक,,मेरी नज़रों से,,देखो वह अद्भुत दृश्य अभी,
मेरी बाँहों में सुंदर खग,मैंने भी प्रेम लुटाया है.........

दिल में उतरा,नैनों में बसा,फिर पिंजड़े में क्यों रखना,
बंध गये भाँवना में दोनों,,ये कितनी सुंदर माया है....

ऐसे ही चला संगम लेकिन,एक दिन वो दिल को तोड़ गया.
किस लोक गया उड़कर,,सुगना,,अबतक न वापस आया है..

मन व्याकुल है,मन विचलित है,है विरह ज़हन अकुलाया है,
"सिद्धार्थ",भला कैसे रुकता,,?,जाने के लिये जो आया है..........

     
            कवि सिद्धार्थ अर्जुन







Comments

  1. सिद्धार्थ भला कैसे रुकता,जाने के लिए जो आया है। बहुत शानदार रचना

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