वो भी था कुछ ख़ास भिखारी...

हर फ़रियाद सुनी मैंने,ख़ाली झोली को भर डाला,
वो भी था कुछ खाश भिखारी,हमें भिखारी कर डाला...

जरा सी मोहलत दे दी मैंने ,बारिश को,चल खूब बरस,
मेरे ही घर में बरसी,,मुझको ही बे-घर कर डाला.......

कुछ चूहे हमने भी अपनी सह पर कल तक पाले थे,
काट-काट कर मेरा गलीचा,बिस्तर ग़ायब कर डाला...

चुन चुन रंग रखे थे हमने "अर्जुन" उसकी ख़िदमत में,
ऐसे मुझको रंगा,, की मेरा जीवन बे रंग कर डाला....

वो भी था कुछ ख़ास भिखारी,हमको बे-घर कर डाला..

                    कवि सिद्धार्थ अर्जुन

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

महल बनाओ पानी पर....

सुनो ग़रीब हूँ.......

ख़ूबसूरती का एहसास..और दिलजलों की प्यास