कौन हो तुम.....?
##### कौन हो? ####
संस्मरण की चद्दर में लिपटा,
व्यथित चित्त,
मुड़ना चाह रहा था,
उस मोड़ पर,
जिसकी किसी कतार में,
आशियाना था,उनका
जो रहते थे,,ख्यालों में...
बेड़ियों में बंधे पाँव,
चल पड़े,
नज़र तलाशने लगी
वही पुरानी, खिड़की...
दिखा तो कोई,
मग़र वो नहीं कोई और था,
दरख़्त की गोद मिली,
इंतज़ार को गले लगाकर,
हवा को तलाशती कश्ती सा,
बैठ गया,
गली के उसी छोर पर,
जहाँ से गुज़रती थी,
टोली,,,
मेरी हमजोली की,
बेरहम नहीं था मालिक,
करम कर ही दिया,
दिखने लगा वो भी,
जो चाहिये था...
पर नहीं दिखा मैं उसे,
क्यों?
लोटने लगा साँप के जैसे,
मणि के आस-पास,
वह लुढ़कती जा रही गेंद की तरह
कोशिस मेरी,,पकड़ लूँ
आख़िर हो ही गयी सरहद पार,
ज़िद्दी मैं भी ,पहुँच गया,
बिना खटखटाये दरवाज़ा..
और ख़त्म हो गया,
सफ़र,
जब उसने पूँछा,
कौन हो?
कवि सिद्धार्थ अर्जुन
संस्मरण की चद्दर में लिपटा,
व्यथित चित्त,
मुड़ना चाह रहा था,
उस मोड़ पर,
जिसकी किसी कतार में,
आशियाना था,उनका
जो रहते थे,,ख्यालों में...
बेड़ियों में बंधे पाँव,
चल पड़े,
नज़र तलाशने लगी
वही पुरानी, खिड़की...
दिखा तो कोई,
मग़र वो नहीं कोई और था,
दरख़्त की गोद मिली,
इंतज़ार को गले लगाकर,
हवा को तलाशती कश्ती सा,
बैठ गया,
गली के उसी छोर पर,
जहाँ से गुज़रती थी,
टोली,,,
मेरी हमजोली की,
बेरहम नहीं था मालिक,
करम कर ही दिया,
दिखने लगा वो भी,
जो चाहिये था...
पर नहीं दिखा मैं उसे,
क्यों?
लोटने लगा साँप के जैसे,
मणि के आस-पास,
वह लुढ़कती जा रही गेंद की तरह
कोशिस मेरी,,पकड़ लूँ
आख़िर हो ही गयी सरहद पार,
ज़िद्दी मैं भी ,पहुँच गया,
बिना खटखटाये दरवाज़ा..
और ख़त्म हो गया,
सफ़र,
जब उसने पूँछा,
कौन हो?
कवि सिद्धार्थ अर्जुन
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