काश तू आ जाता.......
दौड़ ही जाती थी नज़र दरवाज़े तक,
आहट पाकर...
उम्मीद थी कोई आया होगा..
नहीं सोंचा,,,सताती हवा ने,
मज़ाक में ही दरवाज़ा हिलाया होगा....
पैग़ाम भी नहीं आया,
ख़ैरियत रही होगी........
कैसे याद करते हमें,
फ़ुर्सत ही नही होगी....…..
तलाशता रहा,ख़ुशबू,,उसी की,
गुलशन में.....
बाहर कैसे मिलता,वो तो छुपा था,
मेरे मन में......
उतर कर दिल में,
वक़्त का एक-एक लम्हा रोया..
लुट गया चैन,,नींद ग़ायब है,
और तुम पूँछते हो,क्या-क्या खोया.....
ज़रूरत नहीं पड़ी आज हमें पानी की,
मल-मल कर,,आँखों को,,
आँसुओं से चेहरा धोया......
काली चादर ओढ़कर,,
घुल गया अँधेरे में...
एक भी चिराग़ नहीं जला,
उल्फ़त के बसेरे में.......
रवां हुई सभी कल्पनायें,
एक-एक करके..
बिस्तर ने देखी,,,करवट की,सभी कलायें,
एक-एक करके.......
सवाल उठ रहे थे,
काश जवाब पा जाता..
अब तक सोंच रहा हूँ,
काश तू आ जाता...
काश तू आ जाता........
कवि सिद्धार्थ अर्जुन
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