वह आवेश था...जिंदगी में फ़रिश्ता..

चेहरा ढक लिया चादर से,आकाश के तारे नें,
हवा थम कर देखने लगी..........
रोने लगा बादल,,बिखर गये मोती,
नदियाँ जमकर देखने लगी........
आँख,,विगत दृश्य को तड़पती दिखी,
प्रयाग की सड़क पर.....
एक रूह दो भाग में बंटती दिखी,
प्रयाग की सड़क पर.....
उधर भी बंज़र,,
इधर भी नमी की कमी थी,
गिरता कैसे आँसू,
नब्ज़-नब्ज़ जमी थी...
चौराहा सिकुड़कर एक होना चाहता था,
मैं मुड़-मुड़ कर लौट जाना चाहता था...
कोई अक्स आँख में छाया था,
जाने कौन था,,,कहाँ से आया था,
सन्नाटा गूँज रहा,,अधर हिल न सके,
अंतिम मोड़,,और हम
गले मिल न सके.............
खींच रहा था कोई,,
अंदर से अंदर को...
नदियाँ तो नदियाँ,,,,प्यास थी समुंदर को,
कौतूहल उठा,,दिल के कोने में,
लगा आज सफ़र का अंत है,
नहीं,,बोला कोई,,
यही तो प्यार का बसन्त है...
कण्ठ कोयल सोंचकर यह मौन थी,
यह घड़ी है विषाद की,
मुझे क्या पता,,यही घड़ी है
प्रेम प्रसाद की....
उसने हमको कितना समझा क्या मालूम,
मैंने उसके रोम-रोम को जान लिया,
शांत निगाहें कह न सकी जो,
मैंने ख़ुद पहचान लिया,
आवेश,सिद्धार्थ में या सिद्धार्थ,आवेश में,
कुछ भी हो,सर्वत्र आवेश ही था..
क्या करता मन,,प्यार उमड़ना बनता था,
वृंदावन,मथुरा जैसा परिवेश ही था,
बोल रही थी चीख चीख कर जान मेरी,
क़दम रोंक वरना,, मैं भी चल सकती हूँ..
दूर न चल प्रियतम से,,,मान ले मेरी भी,
विरह अगन में मैं भी तो जल सकती हूँ,
किससे बिछड़ रहा था मैं,,,
क्या उससे रिश्ता था..
सुन,,सुन,,,
ज़रा थम के,,,,,,
जिससे बिछड़ रहा था मैं,
क्या मेरा उससे रिश्ता था,,,
दिल,दिलरुबा,धड़कन,प्रिय,प्रियतम ,सखा,
रिश्तों का अंबार था,
एक था पर मेरा संसार था,
अब सुन कौन था,,
मेरा क्या रिश्ता था...
वह रग रग में बसता आवेश था,,,
जो दोस्त नहीं,
मेरे जीवन का फ़रिश्ता था................

                        कवि सिद्धार्थ अर्जुन


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