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ThePrint India Modi govt wants more Muslims in IAS & IPS, raises budget for free UPSC coaching But Nirmala Sitharaman’s budget has made marginal cuts in pre-matric and post-matric scholarships for minorities. SANYA DHINGRA 5 July, 2019 3:53 pm File image of UPSC candidates standing in queue for inspection by police personnel outside an exam centre in Gurugram | PTI File image of UPSC candidates standing in queue for inspection by police personnel outside an exam centre in Gurugram | PTI New Delhi: The Narendra Modi-led BJP government has substantially increased budget allocation for minority community candidates appearing in the UPSC exam even as it made marginal cuts on educational grant for minorities. The budget for providing free and subsidised coaching for minority candidates has been increased from Rs 8 crore last year to Rs 20 crore this year under the ‘Support for students clearing prelims conducted by UPSC, SSC, State Public Service Commissions etc’ scheme. ...

मांस क्यों नहीं खाना चाहिये...

*क्यों नहीं खाना चाहिये मांस......?*       हमने पहले भी कह रखा है कि *यदि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता लगाना है तो ज़्यादा कुछ जानने की ज़रूरत नहीं है सिर्फ़ आप उस व्यक्ति का "आचार" अर्थात रहन-सहन और "आहार" अर्थात "भोजन" पता कर लीजिये। यहाँ पर हम मुख्य रूप से "आहार" की बात करेंगे.. एक घटना हमें याद आती है जो मैं बताता हूँ आप सबको,एक बार किसी सज्जन ने हमसे बताया कि हर प्राणी के अंदर स्वाभाविक रूप से एक "जीवात्मा" होती है और यह जीवात्मा परम पिता परमेश्वर का *अंश* होती है इस हिसाब से दुनिया के किसी भी कोने में पैदा होने वाला जीव जन्म से देवत्व से परिपूर्ण होता है अर्थात उसका जो मूल लक्षण होता है वह *इंसानियत,प्रेम,और सद्व्यवहार* से भरा होता है परंतु चूँकि जीव परा प्रकृति है,परा प्रकृति का मतलब है ईश्वर द्वारा बनायी गयी वह प्रकृति जो सदैव अपने आपको विकास या पतन की ओर ले जाने को तत्पर रहे,अब जीव में यह गुण होता है अतः वह परा प्रकृति है एक बात और यहीं पर स्पष्ट कर दूँ की यहाँ पर हमने जीव शब्द का प्रयोग सिर्फ़ मानव जाति के लिये ही किया ह...

क्या फ़ायदा...

नाज-नख़रे दिखाने से क्या फ़ायदा.. अब मुझे आज़माने से क्या फ़ायदा... दिल की दहलीज़ जब पार कर ही चुके, फ़िर यूँ नज़रें चुराने से क्या फ़ायदा.... तुम जलाओ अहम अपने दिल का सनम, दिलजलों को जलाने से क्या फ़ायदा...... तोड़ पाओ तो तोड़ो ज़हां की रसम, ऐसे दिल तोड़ जाने से क्या फ़ायदा...... मुझ पे हँसना भी है तो हँसो ज़ोर से, मुँह छुपा मुस्कुराने से क्या फ़ायदा...... आये हो गर तो तुम झूमकर के पियो, बिन पिये लौट जाने से क्या फ़ायदा..... चाँद अर्जुन की गोदी में अब आ उतर, दूर ही जगमगाने से क्या फ़ायदा....                     सिद्धार्थ अर्जुन

कोई पास से दूर जाने लगा है...

कोई हमसे छिपने-छिपाने लगा है, कोई पास से दूर जाने लगा है..... शाये में जिसके थे अब तक उजाले, वही आज दीपक बुझाने लगा है..... जो पग चिन्ह भी मेरे पढ़ता था रुककर, ख़तों को हवा में उड़ाने लगा है...... मिलाकर कर के आँखे,जो दिल में उतरता, वही आज नज़रें,बचाने लगा है....... ओ सिद्धार्थ!देखो सिला दिललगी का, मोहब्बत को झूठा बताने लगा है....... कोई पास से दूर जाने लगा है, कोई हमसे छिपने-छिपाने लगा है....                        सिद्धार्थ अर्जुन

एक दिन लड़ पड़े,क़ुदरत और हम...

,,,,,,, एक दिन लड़ पड़े ,,,, एक दिन लड़ पड़े क़ुदरत और हम आख़िर झुके कौन? न वह कम न हम कम.. उड़ा दिया छप्पर, कहा, छत नहीं दूँगी हमने कहा, आसमाँ की छाया में सो लूँगी.. चला के आँधी बोली, चिराग़ जला तो जानू... हमने कहा, रौशन है आफ़ताब, उसे बुझा तो मानूँ.........                       कवि सिद्धार्थ अर्जुन

मंदिर-मस्ज़िद

,,,,, मंदिर-मस्ज़िद ,,,, सात रंग में रंगी, एक ईमारत, कह उठी दूसरी से, क्या?कुछ अलग-अलग लिखा है, अपनी दीवारों पर, मैंने तो नहीं कहा कि लड़ बैठो,आपस में..... शायद तुमने भी नहीं फ़िर कौन घोल देता है ज़हर पाक़ नुमाइंदों के बीच कौन बिखेर देता है काँटे जो लाल कर देते हैं अपना आँगन आने वालों के लहू से बोल उठी दूसरी, बहना!मुझे भी ग्लानि है अफ़सोस है,बच्चों की कुबुद्धि पर नहीं समझते,वो कि बने हैं हम एक दूसरे के लिये एक ही मिट्टी-पानी से शोर कर दो, सभी दिशाओं में... बोल दो.. कम करें दूरियाँ,हमारे बीच की बजा दें घण्टी, अज़ान शुरू कर दें भोर की आरती, अज़ान के बाद मिलना चाहते हैं गले मंदिर-मस्ज़िद................                            कवी सिद्धार्थ अर्जुन

कौन हो तुम.....?

##### कौन हो? #### संस्मरण की चद्दर में लिपटा, व्यथित चित्त, मुड़ना चाह रहा था, उस मोड़ पर, जिसकी किसी कतार में, आशियाना था,उनका जो रहते थे,,ख्यालों में... बेड़ियों में बंधे पाँव, चल पड़े, नज़र तलाशने लगी वही पुरानी, खिड़की... दिखा तो कोई, मग़र वो नहीं कोई और था, दरख़्त की गोद मिली, इंतज़ार को गले लगाकर, हवा को तलाशती कश्ती सा, बैठ गया, गली के उसी छोर पर, जहाँ से गुज़रती थी, टोली,,, मेरी हमजोली की, बेरहम नहीं था मालिक, करम कर ही दिया, दिखने लगा वो भी, जो चाहिये था... पर नहीं दिखा मैं उसे, क्यों? लोटने लगा साँप के जैसे, मणि के आस-पास, वह लुढ़कती जा रही गेंद की तरह कोशिस मेरी,,पकड़ लूँ आख़िर हो ही गयी सरहद पार, ज़िद्दी मैं भी ,पहुँच गया, बिना खटखटाये दरवाज़ा.. और ख़त्म हो गया, सफ़र, जब उसने पूँछा, कौन हो?                 कवि सिद्धार्थ अर्जुन