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Showing posts from April, 2019

कोई पास से दूर जाने लगा है...

कोई हमसे छिपने-छिपाने लगा है, कोई पास से दूर जाने लगा है..... शाये में जिसके थे अब तक उजाले, वही आज दीपक बुझाने लगा है..... जो पग चिन्ह भी मेरे पढ़ता था रुककर, ख़तों को हवा में उड़ाने लगा है...... मिलाकर कर के आँखे,जो दिल में उतरता, वही आज नज़रें,बचाने लगा है....... ओ सिद्धार्थ!देखो सिला दिललगी का, मोहब्बत को झूठा बताने लगा है....... कोई पास से दूर जाने लगा है, कोई हमसे छिपने-छिपाने लगा है....                        सिद्धार्थ अर्जुन

एक दिन लड़ पड़े,क़ुदरत और हम...

,,,,,,, एक दिन लड़ पड़े ,,,, एक दिन लड़ पड़े क़ुदरत और हम आख़िर झुके कौन? न वह कम न हम कम.. उड़ा दिया छप्पर, कहा, छत नहीं दूँगी हमने कहा, आसमाँ की छाया में सो लूँगी.. चला के आँधी बोली, चिराग़ जला तो जानू... हमने कहा, रौशन है आफ़ताब, उसे बुझा तो मानूँ.........                       कवि सिद्धार्थ अर्जुन

मंदिर-मस्ज़िद

,,,,, मंदिर-मस्ज़िद ,,,, सात रंग में रंगी, एक ईमारत, कह उठी दूसरी से, क्या?कुछ अलग-अलग लिखा है, अपनी दीवारों पर, मैंने तो नहीं कहा कि लड़ बैठो,आपस में..... शायद तुमने भी नहीं फ़िर कौन घोल देता है ज़हर पाक़ नुमाइंदों के बीच कौन बिखेर देता है काँटे जो लाल कर देते हैं अपना आँगन आने वालों के लहू से बोल उठी दूसरी, बहना!मुझे भी ग्लानि है अफ़सोस है,बच्चों की कुबुद्धि पर नहीं समझते,वो कि बने हैं हम एक दूसरे के लिये एक ही मिट्टी-पानी से शोर कर दो, सभी दिशाओं में... बोल दो.. कम करें दूरियाँ,हमारे बीच की बजा दें घण्टी, अज़ान शुरू कर दें भोर की आरती, अज़ान के बाद मिलना चाहते हैं गले मंदिर-मस्ज़िद................                            कवी सिद्धार्थ अर्जुन

कौन हो तुम.....?

##### कौन हो? #### संस्मरण की चद्दर में लिपटा, व्यथित चित्त, मुड़ना चाह रहा था, उस मोड़ पर, जिसकी किसी कतार में, आशियाना था,उनका जो रहते थे,,ख्यालों में... बेड़ियों में बंधे पाँव, चल पड़े, नज़र तलाशने लगी वही पुरानी, खिड़की... दिखा तो कोई, मग़र वो नहीं कोई और था, दरख़्त की गोद मिली, इंतज़ार को गले लगाकर, हवा को तलाशती कश्ती सा, बैठ गया, गली के उसी छोर पर, जहाँ से गुज़रती थी, टोली,,, मेरी हमजोली की, बेरहम नहीं था मालिक, करम कर ही दिया, दिखने लगा वो भी, जो चाहिये था... पर नहीं दिखा मैं उसे, क्यों? लोटने लगा साँप के जैसे, मणि के आस-पास, वह लुढ़कती जा रही गेंद की तरह कोशिस मेरी,,पकड़ लूँ आख़िर हो ही गयी सरहद पार, ज़िद्दी मैं भी ,पहुँच गया, बिना खटखटाये दरवाज़ा.. और ख़त्म हो गया, सफ़र, जब उसने पूँछा, कौन हो?                 कवि सिद्धार्थ अर्जुन       

ऐ दोस्त.......

,,,,,,,,, *ऐ दोस्त* ,,,,,,,,, *ऐ दोस्त!* जरा खिड़की खोलो, देखो मैंने कुछ भेजा है,,,,,,,,,, मीठी सी हवा में मैंने देखो, ढेरों प्यार सहेजा है,,,,,,,,,,,,,, उठ आँख खोलकर देख जरा, ये दिन कितना चढ़ आया है, तू देर तलक़ सोता न रहे, मैंने सूरज भिजवाया है,,,,,,,,,, *ऐ दोस्त!* गली के गमले में, एक नयी कली मुस्कायी है, गालों से लगा,चुम्बन कर ले, तेरे ख़ातिर भिजवायी है,,,,,,,,, *ऐ दोस्त!* रोज मैं गुलशन में, भौंरा बनकर मड़राऊँगा,, तू आना कलियाँ चुनने को, मैं सुंदर गीत सुनाऊँगा,,,,,,,,,, *ऐ दोस्त!* हमेशा ख़ुश रहना, फिर किसी जन्म में आऊँगा, आइना देख लेना तब तक, मैं उसमें ही दिख जाऊँगा,,,,,,, अच्छा ,अब देख, गदेली को, कुछ नयी लकीरें आयी हैं,,, मैंने अपनी सारी खुशियाँ, तेरे हिस्से लिखवायी हैं,,,,,,,,, अब चलूँ,,जरा सा ,हंस दे तू,, कुछ रश्में और उठाना है, तन्हा,,तन्हा है क़ब्र मेरी,, उसका भी साथ निभाना है,,,,,,,                     कवि सिद्धार्थ *अर्जुन* (तू रहे जगमग..........)

काश तू आ जाता.......

दौड़ ही जाती थी नज़र दरवाज़े तक, आहट पाकर... उम्मीद थी कोई आया होगा.. नहीं सोंचा,,,सताती हवा ने, मज़ाक में ही दरवाज़ा हिलाया होगा.... पैग़ाम भी नहीं आया, ख़ैरियत रही होगी........ कैसे याद करते हमें, फ़ुर्सत ही नही होगी....….. तलाशता रहा,ख़ुशबू,,उसी की, गुलशन में..... बाहर कैसे मिलता,वो तो छुपा था, मेरे मन में...... उतर कर दिल में, वक़्त का एक-एक लम्हा रोया.. लुट गया चैन,,नींद ग़ायब है, और तुम पूँछते हो,क्या-क्या खोया..... ज़रूरत नहीं पड़ी आज हमें पानी की, मल-मल कर,,आँखों को,, आँसुओं से चेहरा धोया...... काली चादर ओढ़कर,, घुल गया अँधेरे में... एक भी चिराग़ नहीं जला, उल्फ़त के बसेरे में....... रवां हुई सभी कल्पनायें, एक-एक करके.. बिस्तर ने देखी,,,करवट की,सभी कलायें, एक-एक करके....... सवाल उठ रहे थे, काश जवाब पा जाता.. अब तक सोंच रहा हूँ, काश तू आ जाता... काश तू आ जाता........                     कवि सिद्धार्थ अर्जुन

वह आवेश था...जिंदगी में फ़रिश्ता..

चेहरा ढक लिया चादर से,आकाश के तारे नें, हवा थम कर देखने लगी.......... रोने लगा बादल,,बिखर गये मोती, नदियाँ जमकर देखने लगी........ आँख,,विगत दृश्य को तड़पती दिखी, प्रयाग की सड़क पर..... एक रूह दो भाग में बंटती दिखी, प्रयाग की सड़क पर..... उधर भी बंज़र,, इधर भी नमी की कमी थी, गिरता कैसे आँसू, नब्ज़-नब्ज़ जमी थी... चौराहा सिकुड़कर एक होना चाहता था, मैं मुड़-मुड़ कर लौट जाना चाहता था... कोई अक्स आँख में छाया था, जाने कौन था,,,कहाँ से आया था, सन्नाटा गूँज रहा,,अधर हिल न सके, अंतिम मोड़,,और हम गले मिल न सके............. खींच रहा था कोई,, अंदर से अंदर को... नदियाँ तो नदियाँ,,,,प्यास थी समुंदर को, कौतूहल उठा,,दिल के कोने में, लगा आज सफ़र का अंत है, नहीं,,बोला कोई,, यही तो प्यार का बसन्त है... कण्ठ कोयल सोंचकर यह मौन थी, यह घड़ी है विषाद की, मुझे क्या पता,,यही घड़ी है प्रेम प्रसाद की.... उसने हमको कितना समझा क्या मालूम, मैंने उसके रोम-रोम को जान लिया, शांत निगाहें कह न सकी जो, मैंने ख़ुद पहचान लिया, आवेश,सिद्धार्थ में या सिद्धार्थ,आवेश में, कुछ भी हो,सर्वत्र आवेश ही था.. ...

कहीं भगवान न बिक जाये इन बाजारों में...

धर्म का कैसा है,,व्यापार इन बाज़ारों में... डर है भगवान न बिक जाये इन बाजारों में, बाप पर बेटे की चलती यहाँ हुक़ूमत है, डर है सम्मान न बिक जाये इन बाजारों में... हर तरफ़ स्वार्थ है,करुणा दया की बात नहीं, डर हैं कि प्यार न बिक जाये इन बाजारों में.... जाति है,धर्म है,मज़हब है,है इंसान कहाँ, डर है इंसान न बिक जाये इन बाजारों में.... दूध का कर्ज़ चुकाने की बात क्या"अर्जुन" डर है ईमान न बिक जाये इन बाजारों में......                          सिद्धार्थ अर्जुन

मत करो,,मेरी चर्चा,,मेहरबानो,, मुझे तो, मैंने देखा है,,तुम मुझे क्या जानों..? क्यों गाते हो,,मेरे गीत,,बोलो,,मेरे,,दीवानों, मुझे तो ,मैंने देखा है,,,तुम मुझे क्या जानों...? वो कहते हैं,पागल,मुझको,तुम्हारी मर्ज़ी,, कुछ भी मानो मुझे तो,मैंने देखा है,,तुम मुझे क्या जानों...? कुछ भरे तो कुछ सीप खाली भी होंगे,,मोती वाला पहचानों, मुझे तो ,मैंने देखा है,,तुम मुझे क्या जानों.....? पढ़ रहे हो,,मुझे,,पढ़ पाओगे,,?पहले ख़ुद को पढ़ने की ठानो.. मुझे तो,,मैंने देखा है,,तुम मुझे क्या जानों.....?              सिद्धार्थ अर्जुन

कहीं से आ ही जायेगी,,हमारे नाम की चिट्ठी...

कहीं से आ ही जायेगी,,हमारे नाम की चिट्ठी, एे रहनुमा!,,,,मेरा इंतज़ार मत करना..... जंग,जंग होती हैं इसमें सुकून कहाँ, ये ख़ता है,,, बार-बार मत करना......... लूटने दौड़ आयेंगी कई वहसी घर तक, कली को सुपुर्द-ए-अख़बार मत करना....... ज़िस्म क़ुदरत का तराशा हुआ नगीना है, ऐ दोस्त! ज़िस्म का क़ारोबार मत करना.....                       सिद्धार्थ अर्जुन

पापा की याद में...

,,,,,पापा की याद में कुछ पंक्तियाँ,, हो गये रुख़सत सभी,,पर तुम नहीं जाना, रात की तन्हाइयों में तुम नज़र आना..... ओढ़ लूँ चादर के जैसे ,रात ठंडी है,,, धूप में बनकर के छाया तुम चले आना...... पाँव हैं जब-जब जले कांधे बिठाया है,,, हौंसले टूटे अग़र तो तुम चले आना.......... बून्द सागर से अलग है,, कौन जाने ग़म, ग़म के दरिया को सुखाने तुम चले आना.... वक़्त की परछाइयाँ हमको डराती हैं,, ऐ पिता!बनकर के शाया तुम चले आना... लोग चलकर ताकते हैं,,पूर्वगामी पथ, चलने से पहले सही,रस्ता बता जाना.... हो गये रुख़सत सभी पर तुम नही जाना रात की तन्हाइयों में तुम नज़र आना......                   सिद्धार्थ अर्जुन

सपने मत तोडना कभी माँ बाप के....

*..सपने मत तोड़ना कभी माँ-बाप के..* अपने ख़्वाबों की दुनिया सँवारो मग़र, बन न जाना तू भागी किसी पाप के,,,,,,, तू है जो कुछ भी,,माँ-बाप का है करम सपने मत तोड़ना कभी माँ-बाप के.......... याद रखना तू बचपन का हर फ़लसफ़ा,, माता भूखी रही,सोंचों,कितनी दफ़ा,, प्रेम में इश्क़ में पड़ के ओ रहगुज़र, भूल मत जाना माँ-बाप की तुम वफ़ा, हंस के हंसना मग़र याद रखना सदा, ख़ुश न होना कभी घर का सुख ताप के, सपने मत तोडना,,कभी माँ-बाप के.......... तू जवां है,हैं उनके बुढ़ापे के दिन, बोल कैसे जियेंगे वो अब तेरे बिन, बूढ़ी काया का बनना सहारा सदा, आयेंगे न कभी फ़िर कहीं दुःख के दिन, उनकी ममता की समता को समझोगे तब, सामने खेलेंगे,,बच्चे जब आपके, सपने मत तोड़ना,,,,कभी माँ-बाप के........... खो दिया गर इन्हें विश्वबाजार में, ढूंढकर भी न पाओगे संसार में, जो सुकूँ मम्मी पापा के दामन में हैं, न मिलेगा किसी और के प्यार में, ये लुटाते हैं दौलत को दिल खोलकर, प्यार करते नहीं हैं कभी माप के, सपने मत तोड़ना,, कभी माँ-बाप के..........                      सिद...

क्योंकि मैंने दर्द सुनाना छोड़ दिया...

दिख जाते हैं कई काफ़िले साथ मेरे, क्योंकि मैंने दर्द सुनाना छोड़ दिया.... क़ीमत मेरी अब पहले से ज़्यादा है, क्योंकि अपना दाम लगाना छोड़ दिया... सारे पत्थरबाज, शहर के ,नाख़ुश हैं, क्योंकि घर से बाहर जाना छोड़ दिया... जितने लफ्ज़ लिखे मैंने,,दिख जायेंगे, क्योंकि लिखना,और मिटाना, छोड़ दिया... ख़ुशियों का माहौल है,'अर्जुन' मैंने अब, पत्थर दिल से दिल बहलाना छोड़ दिया......                         सिद्धार्थ अर्जुन

जानते हो दर्द कितना है....

जानते हो दर्द कितना है धधकते घाव में, फिर भी क्यों काँटा चुभोते हो किसी के पाँव में.... गर चली रिश्तों के पौधों पर,कुल्हाड़ी जीभ की, कैसे बैठोगे बताओ,,तुम,,सुकूँ से छाँव में....... बैठकर तुमको भी जाना है नदी के पार तक, फिर भला क्यों छेद करते जा रहे हो नाव में...... जीत लो दुनिया,जमाने को झुका लो तुम मग़र, हार ही जाओगे एक दिन ज़िन्दगी के दाँव में..... पढ़ने वालों! सुनने वालों! दो वचन 'सिद्धार्थ' को, अब नहीं बाँटोगे नफ़रत तुम शहर या गाँव में......                                    सिद्धार्थ अर्जुन

हवाओं जरा उस गली से गुज़रना......

हवाओं जरा उस गली से गुज़रना, जहाँ पर,हमारी सहेली खड़ी है.... हिफ़ाज़त में ठहरे रहो,, चाँद तारों, अँधेरा है, पगली,,अकेले खड़ी है..... सज़ा लें बदन को जरा खुशबुओं से, वहीं चल ,जहाँ पर, चमेली खड़ी है...... ऐ लफ़्ज़ों के मोती,,वहाँ तक पहुँच जा, जहाँ ख़्वाब की वो पहेली खड़ी है....... ज़रा थमके सिद्धार्थ,, न उठ जाये घुँघटा,, दुल्हनिया नयी और नवेली खड़ी है.........                          सिद्धार्थ अर्जुन

यह व्यर्थ तीर..

फ़क़त सितार ,उठाने से,बज नहीं सकता, जरा सा उंगलियाँ चलाके राग उपजाओ, फ़क़त दलील किसे श्रेष्ठ कर सकी हैं यहाँ..? हो श्रेष्ठ गर तो अपनी श्रेष्ठता को दिखलाओ.. सवूर है नहीं कि बात कैसे करते हैं, हो कैसे अंत व शुरुवात कैसे करते हैं, उठा के ऊँगली किसी को भी लक्ष्य क्या करना, हो होशियार तो अपना स्वरूप दिखलाओ...... ये चन्द शब्द के अभिमान में न इतराओ, हूँ मैं अनंत मुझे आप यूँ न भरमाओ,, किसी मनीषी से थोड़ा बहुत सलीका लो, पुनः यहाँ वहाँ सबनम की बूंद छ्लकाओ... इसे अभिमान कहो,तो,सुनो,,अभिमानी हूँ, किसी फ़कीर की दुआ हूँ,,रातरानी हूँ, मेरा मुकाबला करना तुम्हारे बस का नहीं,, ये व्यर्थ तीर कहीं और जाके बरसाओ......                       *सिद्धार्थ अर्जुन*

पहले तू...

पहले तू.......................... साथ चलें हम साथ रुकें हम साथ में नांचे गायें.............. आओ कलियों जरा सा फिर से, हम बसंत ले आयें............. ज़न्नत की चौखट को चलकर, हम लेते हैं छू, पहले तू......................... कायम हो चहुँओर उजाला, मिलकर जतन करेंगे.......... शिक्षा,संस्कृति,कर्म पुष्प से, पुलकित वतन करेंगे........... शब्दों में माधुर्य रहे,, अभिमान की न हो बू.......... पहले तू........................... पूजा,त्याग,तपस्या,व्रत सब, जीव जगत हित हों.............. मृदुल,धवल,नवनीत सदृश, कोमल,निर्मल चित हों.......... सुरसरि सम शीतल पावन बन, बहे सुहानी लू.................... पहले तू........................... नदियों के दो तीर जोड़ दें, सूरज को शय दें................. कंकड़ की कँकरीली ध्वनि को, सरगम की लय दें............... भाव से सब के भाव मिलें, फिर होगी गुफ़्तगू................ पहले तू............................                            सिद्धार्थ अर्जुन