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Showing posts from March, 2019

तुम चलो मैं आता हूँ...

तुम चलो मैं आता हूँ.......... देख लूँ,,कोई कराहे राह के उस छोर पर, नृत्य क्यों ठहरा अचानक,क्या है विपदा मोर पर, क्यों यकायक मन विचल उठता है नभ के शोर पर, रात भर जागूँ,,या थोड़ा काम छोड़ूँ भोर पर.. गुत्थियों की उलझनों में, मैं उलझता जाता हूँ, तुम चलो मैं आता हूँ................................... तन तो पावन कर चुका हूँ,मन अभी ना-पाक़ है, है कहाँ गंगा या ज़मज़म,, मिल सके यह ताक है, ढाल हूँ मैं चित्त मधुरिम,,पर कहाँ पर चाक है, ढूंढता हूँ तुलसी दल मैं,,पर यहाँ बस आक है... ख़ोज है ख़ुद की मुझे,,देखो कहाँ तक जाता हूँ, तुम चलो मैं आता हूँ.................................. दिख रहे हैं चिन्ह कुछ,,पथ पर किसी के पैर के, कुछ निशां अपनत्व के हैं,,कुछ निशां हैं बैर के, कुछ बताते हैं फ़साने वीर जन की ख़ैर के, कुछ दिखाते हैं निशां,,असफ़ल,सफ़ल एक सैर के, आदि भी मिलता नहीं,,मैं,,अन्त भी न पाता हूँ, तुम चलो मैं आता हूँ.................................. ख़ैर,कुछ कर्तव्य अपने हैं निभाने अब तलक़, कर्म के स्वर्णिम महल कुछ हैं उठाने अब तलक़, ज़िन्दगी के भेद हैं सबको बताने अब तलक़, प्राणप्रिय कित...

चलो सब करते हैं मतदान...

,,, *चलो सब करते हैं मतदान* ,,, समय दान,धन धान्य दान, इन सबसे बड़ा महान,,,,,, चलो सब करते हैं मतदान... कोई ख़ाक में मिले दुबारा, कोई भरे उड़ान,,,,, चलो सब करते हैं मतदान... किसने कितना काम किया, किसने किसको बदनाम किया, किसने दौड़ाया विकास को, किसने पहिया जाम किया, आँख खोलकर,ध्यान लगाकर, करनी है पहचान,,, चलो सब करते हैं मतदान.... पाँच बरस का लेखा जोखा, यह त्यौहार बतायेगा.. जितने रंग छुपे थे अब तक, सारे रंग दिखायेगा.. धोखे बाजों को मत चुनना, चुनना नेक प्रधान, चलो सब करते हैं मतदान..... हमसे शक्ति हमसे सत्ता, हमसे ही सिंघासन है, हमसे पावन हमसे निर्मल भारत माँ का आसन है.. कोई दरिंदा ताज न लेले, चुनने को इंसान, चलो सब करते हैं मतदान.... दिल्ली ने आवाज़ लगायी, जागो बहना, जागो भाई, दिखा सको आइना सभी को, आज दुबारा घड़ी वो आयी, बटन दबाकर सभी डालिये, लोकतंत्र में जान,, चलो सब करते हैं मतदान...... सबकी हो सरकार इस दफ़ा, सपना हो साकार इस दफ़ा, जाति पाति और ऊँच नीच का होवे बंटाधार इस दफ़ा.... ऐसा मिलकर करो जतन अब, चमके हिंदुस्तान,,, चलो सब करते हैं मतदान..... ...

कई झोंपड़ी उजड़ रही हैं...

,,, *कई झोंपड़ी उजड़ रही हैं* ,,,, कई झोंपड़ी उजड़ रही हैं, मेरा मकां बसाने में...... कई ज़िन्दगी बिगड़ रही हैं, एक ज़िंदगी बनाने में..... तृप्त उदर है जिनका, उनको मोल नहीं है रोटी का, कितने उदर रीढ़ से चिपके, रोटी एक कमाने में.... थाल में जिनको मिला चंद्रमा, भला ऊँचाई क्या जाने? कितनी मटकी,,किसने फोड़ी,, नदी से पानी लाने में...... बैठ के कन्धों पर हम, ख़ुद को,ऊँचा कहकर हँसते हैं... कोई युवा से बृद्ध हो गया, कन्धों पर टहलाने में...... कोई अपने राग रंग में, भूल गया है घर आँगन, भूला माँ के गिरवी गहने, ख़ुद के ख़्वाब सजाने में... कहने को सिद्धार्थ आज, तेरी भी अलग कहानी है,, कितने आँसू स्याही बन गये, एक कथा लिखवाने में.......              कवि सिद्धार्थ अर्जुन

नेक नज़रिया तलाश लें...

दलदल है यहाँ प्यास कभी बुझ नहीं सकती, उनसे कहो कि दूसरा दरिया तलाश लें....... बदनाम करना इश्क़ में मुझको नहीं आसां, उनसे कहो कि दूसरा जरिया तलाश लें........ बस चन्द घड़ी शेष है इस पाक़ उमर की, कह दो कि एक और उमरिया तलाश लें....... सूरत तो क्या सीरत भी मेरी है बड़ी दिलकश, है देखना तो नेक नज़रिया तलाश लें........ "सिद्धार्थ" नहीं हाँकता है भेंड़-बकरियाँ उनसे कहो कि एक गड़रिया तलाश लें......             सिद्धार्थ अर्जुन     

जब सब चुप थे तब तू बोला...

,,, *जब सब चुप थे,तब तू बोला* ,,,, उड़ने वाले सुन एक गुहार, एक बार और छोड़ो फुहार, कानों तक गूँजे मधुरिम स्वर, रवि से पहले आये बहार, तन्हा विचरण करते मन में, अपनेपन का क्या रस घोला... जब सब चुप थे, तब तू बोला…………………........ झंकृत है ह्र्दयालय का पट, अब और नहीं लूँगा करवट, ऊषा की किरण का अभिनन्दन, करने आऊँगा सरिता तट.... पुलकित हर रोम लगा कहने, तरुवर से पहले तू डोला... जब सब चुप थे, तब तू बोला…........................ है खोज शुरू फिर दाने की, तैयारी महल बनाने की, कल पहुँच गये थे जहाँ-जहाँ, उससे आगे तक जाने की, सुसुप्तावस्था में दुनिया, सबसे पहले आँखें खोला, जब सब चुप थे, तब तू बोला….................... विधि की मैं एक उधारी हूँ, चलता हूँ,,,कारोबारी हूँ, कलरव सुन जाग उठी अँखियाँ, ऐ ख़ग! तेरा आभारी हूँ..... कुछ देर क़लम,, रुक जाना अब, हाँथों में पकड़ना है झोला, जब सब चुप थे, तब तू बोला.....................                  *कवि सिद्धार्थ अर्जुन* (प्रातः काल,,पक्षी को ध्वनि सुनने पर उभरे कुछ शब्द..)

सुनो ग़रीब हूँ.......

,,, *सुनो ग़रीब हूँ...............* ,,,, किसी की आँख से छलका है प्यार का मोती, किसी ने नफ़रतों से फ़िर हमें निहारा है.. किसी ने दिल में बसाया,बिठाया पलकों में, किसी ने गालियाँ देकर हमें पुकारा है.. मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना, सुनो ग़रीब हूँ,जरा सा दूर ही रहना............ कोई घुमा के मुँह निकल गया है और कहीं, तो कोई अब तलक़ खड़ा है मुझे देख यहीं, कभी मिठास में तली अनेक बातें हैं, तो मेरे हिस्से में कभी तो सिर्फ़ लाते हैं.. मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना, सुनो ग़रीब हूँ,जरा सा दूर ही रहना........... किसी ने डाला जो सिक्का,खनक उठी थाली, कभी तो बीत गया दिन,मग़र रही खाली, कभी मिली तो कभी मिल नहीं सकी रोटी, सुनाऊँ किसलिए किसी को मैं ख़री-खोटी, मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना, सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना............ पनाह में गगन की है लगा बिस्तर मेरा, सड़क का कोई किनारा ही रहा घर मेरा,, क्या बात सूट-बूट की,,नहीं खड़ाऊँ भी, मिलो कभी तो तुम्हे एड़ियाँ दिखाऊँ भी, मेरा नसीब यही है,,किसी को क्या कहना, सुनो ग़रीब हूँ,,जरा सा दूर ही रहना......... ख़ुदा ने हमको...

मैं कैसे रहूँ गुमनाम.....?

,, *मैं कैसे रहूँ गुमनाम* ,,, ओ पीर!जरा रुख़सत हो जा, रुक सकूँ, ये ऐसा वक़्त नहीं.. थक-थक कर ठण्डा हो जाये, ऐसा तो हमारा रक्त नहीं....... विश्राम वहीं पर होगा अब, है जहाँ हमारा ,धाम.. बातों से भरी इस महफ़िल में, मैं कैसे रहूँ गुमनाम............? पगचिन्ह! जरा गहरे रहना, वापसी तलक़ ठहरे रहना, यह दुनिया, राग अलापेगी, कुछ मत सुनना, बहरे रहना.. दुनिया अपने मतलब से है,, ढूंढेगी अपना काम.. बातों से भरी इस महफ़िल में, मैं कैसे रहूँ गुमनाम............? मुझको ही धूप में चलने दो, जग पहले से अकुलाया है.. कम से कम वह तो ख़ुश होंगे, जिनपर मेरी प्रतिछाया है... सागर सा स्वाद पसीने में है यही हमारा ज़ाम.. बातों से भरी इस दुनिया में, मैं कैसे रहूँ गुमनाम............? साँसों की गुरियाँ दे देकर, यश के व्यापारी बढ़े चलो, अम्बर नीचा हो जायेगा, एक-एक क़दम तुम चढ़े चलो, कुछ तेज करो रफ़्तार अभी, होने वाली है शाम.. बातों से भरी इस दुनिया में, मैं कैसे रहूँ गुमनाम............? आ गया समय,पूरी हो माँग, चढ़ गयी,, आज फिर हमें भाँग, जब पार ही करना है सागर, चल बांध लांग, मारो छलाँग, तुम ...

उन्हें है नींद चढ़ी ....

उन्हें है नींद चढ़ी धर्म,जाति, मज़हब की, तुम्ही हो होश में,अब सब को जगाने को चलो.. नहीं हैं रूबरू सच के,है आँख पर पट्टी, तुम्हे तो दिख रहा है,,सब को दिखाने को चलो.. कि ये फ़साद भी उनकी ही कोई साज़िश है, चलो हर राज़ से पर्दे को हटाने को चलो......... कहीं तो आग लगी होगी,,आज फिर यारों, तुम्ही बचे हो,,चलो आग बुझाने को चलो........ कोई सड़क पे आज भी कराहता निकला, बनो हमदर्द,,चलो,दर्द बंटाने को चलो......…. कहीं किसी को फिर से मुफ़लिसी ने मारा है, चलो,,हर घर से गरीबी को भगाने को चलो.... बड़ा खारा है,,मगर काम का नहीं है ये, ये सियासत का समुंदर है,,सुखाने को चलो... वो मान बैठे हैं,,मुर्दा है देश का यौवन,, अभी ज़िंदा हो,,उन्हें शक़्ल दिखाने को चलो.. तमाम ख़वाब सहादत के अभी बाक़ी हैं, चलो उन ख़्वाब को ज़मीन पे लाने को चलो... तुम्ही बे बोझ है सिद्धार्थ,,इस जमाने का, चलो,,अब शाह की कुर्सी को हिलाने को चलो..                 कवि सिद्धार्थ अर्जुन

यूँ कंकड़ मार भगाओ न.....

यूँ कंकड़ मार भगाओ न,,वह अभी-अभी तो आया है, पक्षी है,,थका, सफ़र से है,,शायद प्यास पथराया है... दाना-दुनका डालो उसको,पानी की प्याली पहुँचा दो, कुछ तो सेवा-सत्कार करो,,कुछ सोंच के अंदर आया है. चीं-चीं चीं करके कहता है,,चीं-चीं को न मज़बूर करो, कुछ दर्द उसे भी है शायद,,दुनिया ने बहुत सताया है.... ये ताक-झाँक अंदर बाहर,सिद्धार्थ कहीं कुछ गड़बड़ है, कोई निषाद तो है पीछे,,जिससे इतना घबराया है... आ बैठ जा मेरी गोदी में,,दुनिया से बचा लूँगा तुझको, विश्वास करो,"सिद्धार्थ" है ये,,सिंहनी सुता का ज़ाया है.. ऐ पाठक,,मेरी नज़रों से,,देखो वह अद्भुत दृश्य अभी, मेरी बाँहों में सुंदर खग,मैंने भी प्रेम लुटाया है......... दिल में उतरा,नैनों में बसा,फिर पिंजड़े में क्यों रखना, बंध गये भाँवना में दोनों,,ये कितनी सुंदर माया है.... ऐसे ही चला संगम लेकिन,एक दिन वो दिल को तोड़ गया. किस लोक गया उड़कर,,सुगना,,अबतक न वापस आया है.. मन व्याकुल है,मन विचलित है,है विरह ज़हन अकुलाया है, "सिद्धार्थ",भला कैसे रुकता,,?,जाने के लिये जो आया है..........               ...

पैरों के नीचे ज़मीन क्यों है.....?

जब देख लेते हो दूर की, आराम से,, तो हाँथों में ये दूरबीन क्यों है........? तू तो ख़ुद में ही ख़ुदा है फिर,, आज ख़ुद ग़मगीन क्यों है.................? हिम्मत है हाँथों से तोड़ो,,पर्वत को, ये हांथों में मशीन क्यों है.........? बहादुर हो तो पकड़ो सपोलों को,,लपककर,, ये हाँथों में बीन क्यों है.......? बड़ा ऊँचा उड़ने वालों,,आसमान में रहो न, ये पैरों के नीचे ज़मीन क्यों है.......?                 कवि सिद्धार्थ अर्जुन

हमको माँ का आँचल दे दो....

,,,  *हमको माँ का आँचल दे दे* ,,,,, छाया कब तक तपिश मिटाये, कब तक बदरी नीर पिलाये,, कब तक पँखा करें हवायें, लोरी कब तक बिहंग सुनायें.... चैन नहीं इन सबमें हमको, कोई बीता कल दे दे.. छाया, बदरी, हवा,,नहीं हमको माँ का आँचल दे दे....... वही पुरानी सोंधी रोटी, सुबह-शाम कुछ खरी व खोटी, थपकी,,प्यार,,दुलार,,नज़ाकत, माँ की गोदी,,छोटी-छोटी,, बिस्तर,तकिया,चद्दर क्या हैं, ममता का मख़मल दे दे.. छाया,बदरी, हवा ,नहीं,, हमको माँ का आँचल दे दे..... बला, भगें वो जंतर-मंतर, काला टीका लगे निरंतर, अग़र लगे कुछ चोट,,हमें फिर.. बने वैद्य कुछ रहे न अंतर, बाक़ी सब है गरल हमें, कोई तो गंगाजल दे दे.. छाया,,बदरी,,हवा,,नहीं,, हमको माँ का आँचल दे दे....                कवि सिद्धार्थ अर्जुन

क्या तुमने मालूम किया......?

क्या तुमने मालूम किया....? तेज धूप में कौन जला है, मीलों पैदल कौन चला है, किसकी अंतड़ियाँ सिकुड़ी हैं, जल बिन सूखा कौन गला है.....? क्या तुमने मालूम किया...? किसने घर,गहने, बर्तन, गिरवी रख हर पेंच दिया.. किसने हल को ख़ुद ही खींचा, बैलों को किसने बेंच दिया.......? क्या तुमने मालूम किया...? किसने माँगी पुनः अँजूरी, किसकी ख़्वाईश रही अधूरी, कितने हाथ थे मेंहदी वाले, जो करने पहुंचे मज़दूरी....... क्या तुमने मालूम किया......? कितनी बहुवें जली आग में, कितनों ने सेंदुर पोंछा.. कितनी अबलाओं का पल्लू, वहसी ने सरपट नोंचा.........? क्या तुमने मालूम किया...?        कवि सिद्धार्थ अर्जुन

वो भी था कुछ ख़ास भिखारी...

हर फ़रियाद सुनी मैंने,ख़ाली झोली को भर डाला, वो भी था कुछ खाश भिखारी,हमें भिखारी कर डाला... जरा सी मोहलत दे दी मैंने ,बारिश को,चल खूब बरस, मेरे ही घर में बरसी,,मुझको ही बे-घर कर डाला....... कुछ चूहे हमने भी अपनी सह पर कल तक पाले थे, काट-काट कर मेरा गलीचा,बिस्तर ग़ायब कर डाला... चुन चुन रंग रखे थे हमने "अर्जुन" उसकी ख़िदमत में, ऐसे मुझको रंगा,, की मेरा जीवन बे रंग कर डाला.... वो भी था कुछ ख़ास भिखारी,हमको बे-घर कर डाला..                     कवि सिद्धार्थ अर्जुन

बाद में आया था,,पहले ही चला गया...

था,एक दिलजला,,दिल को जला गया, बाद में आया था पहले ही चला गया...... हँसता था,गाता था,,अपनों की ख़ातिर, चलते-चलते अपनों को ही रुला गया.... ज़हर बह गया सब,,आँखों के रस्ते, मरूँ भी तो कैसे,,वो तो अमृत पिला गया, सागर शांत,हवा ठहरी,दीपक बुझने को हैं, अरे था कोई जो दिल दहला गया..... वादा तो था,,साथ-साथ का सिद्धार्थ,, क्या खूब वादा भुला गया.... था,कोई दिलजला,,दिल को जला गया बाद में आया था,पहले ही चला गया...             कवि सिद्धार्थ अर्जुन

हमको कौन पुकार रहा है......

खिड़की,दरवाज़ा और कुण्डी,कौन हिला इस बार रहा है, सन्नाते की ख़ामोशी से हमको कौन पुकार रहा है..........? किसकी प्यास अभी बाक़ी है,कौन अभी तक भूखा है, किसको है आग़ोश की चाहत,बाँहें कौन पसार रहा है....? कह दो अब न लौट सकूँगा, मत देखें मेरे सपने, किसकी नज़रें नहीं थकी हैं,हमको कौन निहार रहा है..? गहरी नींद है सोने भी दो,,,तूफ़ानो से मत खेलो,, हमें जीतने के चक्कर में,कौन स्वयं को हार रहा है........? कौन यहाँ किसका अपना है समझादो उसको सिद्धार्थ, अब तो होगा मिलन वहीं पर, यहाँ फ़क़त बाज़ार रहा है.......? खिड़की दरवाज़ा और कुण्डी,कौन हिला इस बार रहा है,,,, ख़ामोशी के सन्नाटों से,हमको कौन पुकार रहा है..........?                   सिद्धार्थ अर्जुन

घर मत भूल जाना......

सुना है तुम बड़े हो गये, अच्छा है,,पर घर मत भूल जाना.. जहाँ माँगी थी मन्नत रो रोकर, जहाँ सम्भले थे,सब कुछ खोकर, उस विधाता का, वो दर मत भूल जाना..... फ़टी तकिया,टूटी खाट, आसमान के नीचे ,वो ठंढी रात, बिना बिछौने का, बिस्तर मत भूल जाना...... पड़ोसी का नमक,उधारी का आँटा, सिर का पसीना,पैरों का काँटा, एक जोड़ कपड़े की, बसर मत भूल जाना...... गालों की झुर्री,निगाँहों का दुखड़ा, हिस्से का अपनी,वो रोटी का टुकड़ा, समय का किया वो, क़हर मत भूल जाना... वो दर-दर की ठोकर,अमीरों की बातें, फ़रेबी का छल, और दलालों की लातें, बहा आँख से जो,ठिठक कर कभी वो, ज़हर मत भूल जाना, घर मत भूल जाना............               कवि सिद्धार्थ अर्जुन

वर्तमान में महिला के पास समय की कमी,क्यों,कारण,निवारण..

*वर्तमान समय में घरेलू महिलाओं में समय की कमी क्यों? कारण और निवारण.....* आमतौर पर हमारे समाज में एक वाक्य बहुत शान से बोला जाता है कि *महिला आधा समाज* होती है परंतु आधुनिक परिदृश्यों पर दृष्टिपात किया जाये तो संभवतः निष्कर्ष कुछ भिन्न प्राप्त होते हैं।यदि कहा जाये तो यह सही ही होगा की महिला आधा समाज नहीं बल्कि *महिला ख़ुद एक समाज है* । ऐसे में महिला और उससे संबंधित अन्य पहलुओं की प्रासंगिकता पढ़ जाती है और इन पर बात करना आवश्यक हो जाता है। ऐसा ही एक पहलू है *वर्तमान समय में महिलाओं में समय की कमी* । हम इस विषय पर व्यापक प्रकाश डालें इसके लिए हमें कुछ अन्य जानकारियां भी होनी चाहिए जैसे की समाज में कितने प्रकार की महिलायें हैं,व तमाम अन्य बातें.. ।तो सबसे पहले यदि बात की जाये समाज की तो जिस प्रकार हमारा समाज मुख्यतः शहरी और ग्रामीण दो प्रकार के अंचलों के मध्य पल्लवित है ठीक उसी तरह हमारे समाज में महिलायें भी दो प्रकार की हैं पहली जो गांव से सम्बन्ध रखती हैं और दूसरी जो शहर से सम्बन्ध रखती हैं। इसके बाद यदि हम इनके विश्लेषण में और आगे बढ़ें तो गांव और शहर दोनों जगह की महिलाओं के दो र...

घर का बड़ा जो हूँ...

थका भी हूँ,हारा भी, अकेला लड़ा जो हूँ... जलन वाज़िब है,, अकेले खड़ा जो हूँ.. डर उन्हें भी है, ज़िद पर अड़ा जो हूँ... वो अपनायें भी तो क्यों? कच्चा घड़ा जो हूँ... दाँव पर तो लगना ही था, घर का बड़ा जो हूँ....         कवि सिद्धार्थ अर्जुन

उसने चूड़ी खनकायी है,मध्यम-मध्यम...

कानों तक एक धुन आयी है,मध्यम-मध्यम उसने चूड़ी खनकायी है,मध्यम-मध्यम... धरती से अम्बर तक एक नूतनता छायी है, देख चाँद को आज चाँदनी भी शर्मायी है, छटा गुलाबी फिर छायी है,मध्यम-मध्यम, उसने चूड़ी खनकायी है,मध्यम-मध्यम.... आज हवा मदहोश हुई कुछ बात निराली है, गलियां महकी,शायद वो फिर आने वाली है प्रेम बदरिया घिर आयी है,मध्यम-मध्यम, उसने चूड़ी खनकायी है,मध्यम-मध्यम.... अभी न रोंको मुझे फिज़ाओ, हमको जाना है, एकाकी है मेरी दिलरुबा,साथ निभाना है, लाल चुनरिया लहरायी है,मध्यम-मध्यम, उसने चूड़ी खनकायी है,मध्यम-मध्यम...... धड़कन में मैं उसे बसा लूँ पलकों में रख लूँ, वो मुझको चख ले ,थोड़ा सा,मैं उसको चख लूँ, देख मिलन की ऋतु आयी है,मध्यम-मध्यम, उसने चूड़ी खनकायी है,मध्यम-मध्यम........                 कवि सिद्धार्थ अर्जुन     

आइये,,आइये,,आप भी आइये...

आइये,आइये,,आप भी आइये, फिर से रौशन हमारा ये संसार हो... कर सके न जो पूरा वचन उस दफ़ा, है तमन्ना की पूरा वो इस बार हो...... आइये,आइये........ तेरे माथे पे कुन्दन लगा दूँ सनम, एक क्या, मैं लुटा दूँ ,हज़ारों जनम, अप्सराओं को भी लाज़ आने लगे, इतना सुंदर,तुम्हारा भी,,श्रृंगार हो... आइये,आइये,,........... क्या चुराई है तुमने कली से महक? क्यों हमारी ये महफ़िल रही है बहक? नूर से लायी हो तुम सूर्य से छीनकर, इस धरा पर विधाता का उपहार हो... आइये,आइये,,....... आज़ फिर कुछ भ्रमर गुनगुनाने लगे, नभ से बादल भी राग सुनाने लगे, छेड़ दो रागिनी तुम भी गर झूमकर, मेघ बरसें,पपीहों का उद्धार हो........ आइये,आइये,,.......... शून्य है मन मेरा,कल्पना थम गयी,, रूह भी खो गयी,,नब्ज़ भी जम गयी, सिर्फ इतना बचा है,सुनो ध्यान से, मैं तुम्हारा,सनम!,तुम,मेरा प्यार हो..... आइये,आइये,,..........                कवि सिद्धार्थ अर्जुन

ख़ूबसूरती का एहसास..और दिलजलों की प्यास

यूनिवर्सिटी में आकर मुझे अपनी खूबसूरती का एहसास हुआ। जाने कितने लड़को ने रातों में नींद न आने का इल्जाम मेरे सिर फोड़ दिया, जाने कितनों के दिल में मैं कब उतर गई इस बात का एहसास मुझे भी न हुआ। आज तक हमारे शिक्षक इस धोखे में जी रहे है कि उनके अच्छा पढ़ाने की वजह से क्लासेस में भीड़ बढ़ रही है, परन्तु उन्हें कौन बताये की उसका श्रेय मुझे मिलना चाहिए। क्योंकि अकबर और राणा प्रताप पढ़ने वाले छात्रों को अब अशोक और पाषाणकाल का जमाना भाने लगा है। यही नही बल्कि सीनियर्स छात्रों की पसंदीदा क्लास मेरी ही क्लास हो चुकी है। वो दुहराने की बात करते हुए क्लास अटेंड करते है, पर पूरा ध्यान मेरी ही ओर रहता है। अब हद हो चुकी है, कई शोध छात्रों का शोध का विषय मैं ही बन चुकी हूँ । कभी कधार शिक्षक जी का ध्यान भटकाने में भी खूब आनंद आता है। मेरी तरफ इतनी लाइन्स आती है कि समझ नही आता है की किसे लाइन मारी जाए? खैर मेरा भाव सातवें आसमान पर है। किसी सेलेब्रेटी जैसा एहसास होता है। पैदल चलने से लेकर बुलेटसवार छात्रों का तांता मुझे मेरे रूम तक छोड़ने तक आता है। अब मुझे खुद पर ध्यान भी देना पड़ता है जैसे कि रोज मेकअप करना औ...